आज किनारों पर खड़ा मैं ,
देखता हूँ समंदर को!
और साथ साथ सुनता हूँ इसकी,
निरंतर आती कराहों को !
मजबूर करती हैं यह लहरें ,
मुझे सोचने पर की ?
क्या दर्द की परिभाषा में,
समंदर का शोर शिकन तो नही!
कुछ तो है जो तड़पाता है सागर को भी
पर क्या? , क्यूँ? ,
समझ नही पाता हूँ मैं !
फ़िर ख़ुद पूछता हूँ उससे की,
क्यूँ तेरी आवाज़ सिलवटों से भरी है?
और क्यूँ पटकते हो बार बार अपना सर,
अपने ही पैरों पे पड़ी भावशून्य चट्टानों पर!
जब जानते हो की नही दे सकता तुम्हे
कोई कुछ भी किनारों के सिवा,
किनारे, जो दिलाते हैं एहसास लकीरों का
बंदिशों का , बाँधते हैं जो सीमाओं को!
यह सुन कर एक लहर आकर गिरती है,
मेरे पैरों के सामने और धीमे से कहती है!
हाँ मैं विशाल हूँ, अथाह हूँ
सदियों से जीवन की पनाह हूँ
मगर ये साहिल मेरा पूरक है
मेरे वजूद का गवाह , मेरी जरूरत है
दुख है मुझे की मैं ताकत का परिचायक हूँ,
सदियों से पनपती ज़िन्दगी का अधिनायक हूँ,
यह कराह शिखर पर अकेलेपन की है ,
सिसकता हूँ अपने पैदा किए डर में छुपकर
इतना कह वो लहर कही खो जाती है
धीरे से किसी रेत के दाने पर सर रख सो जाती है
मैं उसे देख बस इतना ही कह पाता हूँ
शुक्र है तुम "इंसान" नही हो!!!!!!!!
....................................................अश्क
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